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वंदनीयविधि सुख दुःख द्वे विध, प्रभु ने सर्व विनाशी।
शान्तिजिनेश दया के सागर, पूजों पद अविनाशी।।11। ओं ह्रीं वेदनीयकर्मबन्धनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय
श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
अष्टाविंशति प्रकृति मोह की, प्रभु ने सर्व विनाशी।
शान्तिजिनेश दया के सागर, पूजों पद अविनाशी।।12। ओं ह्रीं श्री प्रचण्डमोहनीयकर्मबन्धबन्धनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय
शान्तिनाथाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
आयुकर्म की प्रकृति चार हैं, प्रभु ने सर्व विनाशी।
शान्तिजिनेश दया के सागर, पूजों पद अविनाशी।।13। ओं ह्रीं श्री आयुकर्मबन्धबन्धनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय
श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
नामकर्म की प्रकृति नवति त्रय, प्रभु ने सर्व विनाशी।
शान्तिजिनेश दया के सागर, पूजों पद अविनाशी।।14॥ ओं ह्रीं श्री नामकर्मबन्धबन्धनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय
श्री शान्तिनाथाय अयम् निर्वपामीति स्वाहा।
गोत्रकर्म की प्रकृति शुभाशुभ, प्रभु ने उभय विनाशी।
शान्तिजिनेश दया के सागर, पूजों पद अविनाशी।।15।। ओं ह्रीं श्री गोत्रकर्मबन्धबन्धनकृते सति तत्कर्मविपाकोद्भवोपद्रवनिवारकाय
श्री शान्तिनाथाय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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