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(दोहा)
क्षायक चारित्र लब्धिधर, जिन पूजै जो जीव । शक्र चक्र सुख भोग
सदीव॥
॥ इत्याशीर्वादः ॥
समुच्चय जयमाला (छंद कुमुमलता)
जग दुख दायक चार घाति हनि, केवल पाय भये चिद्रूप । शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अनूपम, सुर नर सेवै त्रिभुवन भूप ॥ नाशि अघाति भये शिव मंदिर, वसु गुण धरि अजरामर रूप। नित्य निरंजन वीर जिनेश, नमों पद कंज नशे भव धूप ॥ 1 ॥
लहै
( चाल त्रिभुवन गुरु की)
अहो वीर जिनदेव तुमही त्रि भुवन स्वामी, अरज सुनो महाराज, वसु विधि, बडे हरामी। तुम इनको करनाश वास शिव नगर करावो, मोकूं यह दुख देय गति गति मांहि फिरावो।। रत्नत्रय निधि लूट मोहि ठिग कीयो भिखारी, अब सुध लीजो देव तुमको लाज हमारी । तुम हो दीन दयाल विरद अपनो लख लीजे, मेरी भूल अनादि प्रभु सब माफ करीजे।। अबलौं तुम गुण भेद मैं कछु जाण्यो नाहीं, मुनिगण सेभै पांय ध्यान तें सुर शिव पाई। तुम गुण अगम अपार पार सुर गुरु नहिं पावैं, तेरेनाम प्रसाद - विघन नशि मंगल आवै। अग्नि नीर अहि माल रोगतन मैं नहीं व्यापै, मृगपति मृग सम थाय कुटिल गज थरहर कांपे। व्यंतर भूत पिशाच नाम जपतैं नशि जावै, उदधि परे तिरजाय विषम बन नाहीं डरावे।।
ऐसो अतिशय और कुदेवादिक में नाहीं, मैं जग देख्यो हेर दोष तिष्ठै सब माहीं। तुम निरदूषण देव प्रातिहारज अति सोहै, अनंत चतुष्टय देखि दोष को लेश न को ।। क्षुधा तुषा अरु अरति जन्म मृत्यु तोरी फांसी, खेद श्वेद मद मोह जरा निद्रा भय नासी।
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