________________
गुण अनंत नित आतम रूप सुहावनो, तासो तन्मय भव विचारन पावनो । क्षायक चारित लब्धि शुद्ध गुण धाम है, ता धारक जिनपूजूं तजि सब काम है।। ऊँ ह्रीं क्षायक चारित्र लब्धि जिनेभ्यो अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
जयमाला - दोहा
पंच कल्याणक रूप हो, पंच लब्धि दातार । स्वयं बुद्ध परमात्मा, नमूं नमूं भवहार ।।
(छंद लक्ष्मीधरा)
देखिये जिनेन्द्र आज राज ऋद्धि पाय है, शक्रचक्र आदि सर्व चर्ण शीश नाय है। सार सिंहासनं चामरं धार है, शीशत्रय छत्र इन्दु जोतिको निवार है।।1।। वृक्ष है अशोक सार शोक सब को हरै, देव आकाश तैं फूल वरषा करै। खिरत मुख कंतें दिव्यध्वनि सार है, सुनत भवि जीव को पाप क्षयकार है ||2|| तन प्रभा मंडलं सप्त विख्यात है, बजत सुर दुंदुभी सार जस गात है। कर्म-चक्र नाश के धर्मचक्री भये, बोधि भव्य जीव को मोक्ष लक्ष्मी लये ||3| त्रिपुरारी तुही शुद्ध परमात्म हो, जन्म जरा मर्ण हर एकनेकात्म हो। नमत हूँ विश्वदृश्वा विधाता मही, नमत हूँ विश्वव्यापी त्रिलोचन सही॥4॥ सर्वयोगीश्वरो चिंत्य मैं नमत हूँ, नमहुँ दातात्म तीर्थेश दुख वमत हूँ। नमत हूँ अजित चिंतामणि नाम है, कर्म अरिनाश मन, चिंतक काम है || 5 ॥
( धत्ता)
जय दीन दयालं, शिव करतारं हनि भव जालं अरज करूं।
मैं अर्घ चढाऊं, शीश नमाऊँ, “चंद” जन जनम फिर नाहिं धरूँ। ऊँ ह्रीं अर्हन् परमब्रह्मणे चारित्रलब्धिधारकजिनेभ्यो पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।।
698