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दर्श शुध्यादि जो षोडशी भावना, प्रकृति ये पुन्यफल तीर्थपद पावना।
ज्ञायकं भाव सो धार जिनराज है, तास पद मैं जजों मोक्ष के काज है।। ॐ ह्रीं दर्शन विशुध्यादि पुण्यप्रकृतीनां शुभाशुभफलानां ज्ञायकभाव प्राप्तेभ्यो अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।।8।।
सहित मिथ्यात्व हिंसादिपन पापको, फल बड़े निगोद आदिशुभ्र संतापको।
ता स्वरूप ज्ञायकं लब्धि धारी नमू, जासु पद पूजते सर्व अघ को वमूं। ऊँ ह्रीं मिथ्यात्वसहित हिंसादिपंचपापानां तेषां नरक निगोदादि फलानां ज्ञायकभावप्राप्तेभ्यो
अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
जयमाला - दोहा समवशरण लक्ष्मी धरै, त्रिभुवन पति जिनराय। गुण अंनत उर धार मैं, नमि जैमाल सु गाय।।
(छंद पद्धरि) जय चिनमूरत परमात्म रूप, जय दर्शन ज्ञान धरै अनूप। जय एकानेक मुनीश ध्याय, जय शुद्ध बुद्ध चिद्रूप भाय।। जय मौनी ध्यानी निरविकल्प, जय इष्ट शिष्ट गुण हो अजल्प। जय ब्रह्म विदांवर शिव गनेश, आन तिमिर हरता जिनेश।। जय पुरुष पुराण अलोभ संत, निर आयुध निरभै मुक्तिकंत। जय निकल निरंवर कांतिमान, जय सकल दिगंबर हो पुमान।। जय वीतराग सब विश्व जान, जय नित्यनिरंजन गुणनिधान। जय वृषचक्री ध्वज दयावान, जय श्रीपति श्री करता महान।। जय महाशील महाक्षमा युक्त, जय महादमी महादान जुक्त।
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