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आश्रवा सप्त पंचास जे भेद हैं, आदि मिथ्यात्व देव जीवकू खेद है।
जान संसार में अशुभ शुभ रूप जु, ज्ञान के लब्धि धारी जजू भूप जु।। ॐ ह्रीं मिथ्यात्वादि सप्तपंचाशत् आश्रवादिभावनां स्वरूपानां ज्ञायकभावेभ्योप्राप्तेभ्यो अर्घ
निर्वपामीति स्वाहा।।3।।
जाण मंद तीव्र मध्य भेद जे कषायहैं, तासुभाव आश्रवा भवथिति बंधाय है।
तास रूप ज्ञायकं ज्ञान ऋद्धी धरै, पूजि हूं ते जिना बोध लक्ष्मी धरै।। ऊँ ह्रीं तीव्रमंदमध्यकषाय ज्ञायक भावप्राप्तेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।4।।
सप्त पंचास है भेद संवर तने, समिति गुप्त्यादिकम् आश्रवा रूंधने। ताहि सब ज्ञायकं भाव जो थाय है, मैं जजूं ते जिना लब्धि जो पाय है।। ऊँ ह्रीं समितिगुप्त्यादिसपंचाशत् संवरस्य भेदज्ञायकभाव प्राप्तेभ्यो अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।।5।।
धार तप संवरा पूर्वकं सार है, जासते कम्मणं जीरणाकार है। ता स्वभाव रूपको ज्ञायकं भाव है, ते जिना मैं जजूं कर्म को नशाव है।। ऊँ ह्रीं संवरपूर्वक तपकरण ज्ञायकभाव प्राप्तेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
द्रव्य अरु भाव नोकर्म के नाशतें, जीव के मोक्ष की प्राप्ति है जासतें।
ज्ञायकं भाव ऐसी धरै सो सही, पूजिहूँ ते जिना शीश नाऊँ मही।। ऊँ ह्रीं द्रव्य कर्म-भाव-कर्मनोकर्ममणां क्षायस्वरूपज्ञायकभाव प्राप्तेभ्यो अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।।7।
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