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(सुंदरी छन्द)
क्षेत्र लोक अलोकाकाश है, तिष्ठते सब द्रव्य सुभास है। दर्शनं धर लब्धि जिनेशजी, जजत हूँ शिवकाय सुखेश जी ।।
ॐ ह्रीं लोकाकाशे अलोकाकाश समस्त द्रव्य दर्शनं सा देवदर्शन लब्धि प्राप्तेभ्यो अर्घं
निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
जयमाला (दोहा)
मिथ्यातम हर दिनपती, भव्यकमल प्रफुलान।
षट्कायक रक्षक प्रभू, नमूं अत्महित जान।। जे पंचकल्याणक धरण देव शत इन्द्र करे तुव चरण सेव जै गर्भ प्रथम षट् मास जान, हरि धनपति कूं आज्ञा बखान।। सुन धनपति नग्र रच्यो विशाल, मणिवृष्टि कुबेर करै त्रिकाल । जब जन्महोत सुर ईशा आय, गिर न्होन रच्यो जल क्षीर लाय।। पुन पिता सदन नृत गान ठान, सुरलोक गये इम कर कल्याण। तजि राज जोग धारें जिनेश, धरि ध्यान खड़े मन हैं गनेश || चव घाति कर्म को नाश ठान, प्रगटायो केवल ज्ञान भान । तब समवशरण रचना अपार, अद्भुत कुबेर कीन्ही तैयार।। मणि नीलपीठ पर धूलि थाल, चव मानस्थंभ है मान टाल
वापी अंबुज युक्त जान, आगे खाई शोभायमान।। पुनि पुष्पवाटिका मन सुहाय, प्राकार स्वर्ण मयदृग लखाय। चव गोपुर नृतशाला निहार, चव वनवेदी घट धूप धार।। कलधौत साल अंतर अनूप, कहुँ सरिता कहुं परवत स्वरूप। चव गोपुर ठाडे द्वारपाल, बहु भांति ध्वजा पंकति रसाल।। चहुँ दिश में तूप छतीस थाय, अरहंत सिद्ध प्रतिमा सुहाय
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