________________
पुनि फटिक रूप आकार सार, चव गोपुर नव-नव निध सुधार। शत शत तोरण युत मुक्ति माल, बहु मंगल द्रव्य लसै सुहाल जहां गंध कुटी त्रय पीठ दीठ, सिंहासन अंबुज युक्त ईठ। तामें तुम राजत अंतराल, वच मधुर खिरे सुनि मन खुस्याल।।
गुणनंत चतुष्टय प्रातिहार, महिमा अनंत को लहै पार।। पुन शुक्ल ध्यानतै हनि अघात, निर्वाण लहै निरभय रहा। अविनाशी आतम अचलरूप, गुण अतुल धरे हो त्रिजग भूप ।। मैं तुम बिन दुख जग में लहाय, भोग्या प्रावृत नहीं ओड आय। तुम चरण शरण लीनी अवार, दुख जनम मरण को "चंद” हार || सोरठा
अष्टद्रव्य कर धार, बार-बार विनती करूं। शिवमरणी भरतार, निजगुण संपति दीजिये। ऊँ ह्रीं क्षायिक लब्धिधारक जिनेभ्यो पूर्णार्घं निर्वपामीति स्वाहा।।
सोरठा
जो पूजै मन ल्याय, सो नर भव सागर तिरै। दर्शन लब्धि लहाय, बहुरि जनम वह न धरै।। ॥ इत्याशीर्वादः ॥
क्षपक ज्ञान लब्धि पूजा (दोहा)
ज्ञानावरणी कर्म को, नाश कियो जिनदेव | स्थापन कर तिन पद जजूं, ज्ञान लब्धि के हेव ।। ऊँ ह्रीं ज्ञान लब्धिधारक जिन अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्। अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
688