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कर्म वेदनी दुविध असाता सात है। त्रिंशत कोटा कोटि, उदधि थिति पात है।। जे तुम आतम शक्ति धरे जिन राजजी । वीर्यनाम यह लब्धि जजूं शिव काजजी।। ऊँ ह्रीं वेदनीयस्य त्रिंशत् कोटा कोटि स्थितिनाशकेभ्यः अनंतशक्ति धारकेभ्यः
वीर्यलब्धिधारकेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥3॥
कर्म मोहनीय निज पद दियो भुलाय है। सत्तर कोटा कोटि उदधि थिति पाय है। ता नाशन निज आत्मभाव शक्ती धरा । वीर्यलब्धि जिन लही जजूं भवके हरा।। ॐ ह्रीं मोहनीयस्य स्थितिः सप्तति कोटाकोटि सागर प्रमाण नाशकेभ्यः अनंतशक्ति धारकेभ्यः
वीर्यलब्धि प्राप्तकेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
भव धारण को कारण कर्म जु आयु है। थिति सागर तेतीस जिनेन्द्र नशाय है।। धारत आतम शक्ति अनंत स्वभाव सों। क्षायिक वीर्य स लब्धि जजौं मैं चावसों || सु ऊँ ह्रीं आयुकर्मणः त्रयस्त्रिंशत् सागरोपम स्थितिनाशकेभ्यः अनंतशक्तिधारकेभ्यः वीर्यलब्धिप्राप्तकेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥5॥
नाम कर्म बहु नाम धरावत लोक में । विंशति कोटाकोटि उदधि थिति थोक में ।। ता हानि आतम शक्ति अनंती जे धरै। अनंत वीर्य यह लब्धि जजौं शिवतिय वरै।। ऊँ ह्रीं नानानामधारक नामकर्मणः विंशति कोटाकोटिसागररोपमस्थितिनाशकेभ्यः अनंतशक्तिधारकेभ्यः वीर्यलब्धिप्राप्तकेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
गोत्र कर्म कुल नीच ऊँच जनमात है, उदधि विंशति कोडाकोडी रहात है। ताहि नाशि जिन आत्मस्वभाव प्रभावतैं, वीर्य अनंतजु धरै जजो हूँ भावतें ।। ॐ ह्रीं गोत्रकर्मणः विंशति कोडाकोडिसागररोपमस्थितिनाशकेभ्यः अनंतशक्तिधारकेभ्यः
वीर्यलब्धिप्राप्तकेभ्यः भगवत् जिनेभ्यः अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥7॥
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