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सुरनर मनहर फल बहुविधि के कन्चन थाल भराई। मोह महाफल कारक हो तुम पूजकरौं गुण गाई।। वीर्य लब्धिधारक जिन स्वामी सुर नर पूजै पाई।
पूजूं मन वच शीश नाय निज वीर्य लब्धिबकसाई।। ऊँ ह्रीं वीर्यलब्धिधारक जिनेभ्यो फलं निर्वपामीति स्वाहा।।8।।
जल फल आदिक अर्घ चढाऊँ आठों अंग नमाई। अष्टम थिति के राजकरण कं अरज करूं जिनराई।। वीर्य लब्धिधारक जिन स्वामी सुर नर पूजै पाई।
पूजू मन वच शीश नाय निज वीर्य लब्धिबकसाई।। ऊँ ह्रीं वीर्यलब्धिधारक जिनेभ्यो अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।9।
प्रत्येक अर्घ (अडिल्ल छंद) ज्ञानावरणी कर्म तनी धिति जानियो। त्रिंशत् कोटाकोटी सागर मानियो।। ता हनि आतमशक्ति अचिन्त धरे सही। पूजू पद जिन वीर्यलब्धि ऐसी लही।
ऊँ ह्रीं ज्ञानावरणकम्मणः त्रिंशत् कोटीकोटा सागरोपम स्थिति नाशकेभ्यः अनंतशक्तिधारकेभ्यः वीर्यलब्धिप्राप्तेभ्यः जिनेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
कर्म दर्शनावरणी थिति ऐसी धरै। त्रिंशत् कोटाकोटि उदधि जिन क्षय करै।।
धारक ऐसा वीर्य जिनेश्वर देवजू। पूजू अर्घ चढाय द्रव्य वसु भेवजूं। ऊँ ह्रीं दर्शनावरणस्य त्रिंशत् कोटा कोटिसागरोपमस्थितिनाशकेभ्यः अनंतशक्तिधारकेभ्यः
वीर्यलब्धिधारकेभ्यः भगवत् जिनेभ्य अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।2।
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