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क्षायक सम्यक् की उतपत्ति। क्षायक भाव सु कारण सत्य।
करणलब्धि ये लाभ सु जान। सो धर जिनपूजू मद हान।। ऊँ ह्रीं कर्ण लब्धि प्राप्ताय सम्यक् भावाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।5।।
काल अनादि समंधी भाव। औदयिकादिक जीव लहाव। अधः करण सो लब्धि महान। पाई जिन पर जजि सुख खान।। ऊँ ह्रीं अधः कारण लब्धि धारकाय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।6।।
नरक निगोदादिक भव मांहि। चहुँ गति भ्रम तन भाव धराहिं।
सो अपूर्व जिन भाव लभंत। लब्धि अपूरव कर्ण यजंत।। ऊँ ह्रीं अपूर्व करण लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।7।
क्षायिक सम्यक्तादि सु भाव। वर्तमान सो नाहिं चलाव।
अनिवृतिकरण सु लब्धि धरंत। पूजू शीश नाय अर्हत।। ऊँ ह्रीं अनिवृत्तिकरणनाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा॥8॥
सर्वोत्कृष्ट भाव अमलान। निश्चै परमातम को ध्यान। ये अधिकरण लब्धि सो पाय। तिन पद पूजूं मनवचकाय।। ऊँ ह्रीं अधिकरण नाम लब्धि प्राप्ताय अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।।9।
जयमाला (दोहा) च्यार घाति हनिपाइयो, केवल ज्ञान अनंत। लाभ लब्धि के हेत में, नमि जय माल कहत।।
(छन्द लक्ष्मीधरा) जयति जिन देव तुम सेव शक्री करै। नमन मुनि ईश पद शीश चक्री धरै।
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