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ऊँ ह्रीं लाभ लब्धि धारकाय भगवत् जिनेन्द्राये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
प्रत्येक अर्घ (चौपाई)
सहित मिथ्यात कषाय महान । अनंतानुबंधी चव हान। उपशम सम्यकमिथ्यातकराय । सम्यकप्रकृति को उपशम धाय ।। यह लब्धी शुभ लाभ मझार। क्षयोपशम तासु नाम निहार। ता धारक जिनवर अविकार । जजूं चर्ण जुग अष्ट प्रकार।। ॐ ह्रीं क्षयोपशम लब्धि प्राप्ताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥1॥
सर्वोत्कृष्ट सुमन वच काय । योग राग अरु द्वेष तजाय। सप्त प्रकृति क्षय करि समभाव। लब्धिविशुद्ध जजू धर चाव।। ॐ ह्रीं विशुद्धि लब्धि प्राप्ताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥2॥
सप्त तत्व नव पद षट् दर्व । पंचासतीकाय ये सर्व। इन स्वरूप गुरूमुख उपदेश । ग्रहण देशनालब्धि जिनेश । लाभमाहिं यह भेद विचार। जजूं जलादि द्रव्य भरिथार। हे करुणानिधि भवदधि तार । शरणलह्यो लखि अधम उधार ।। ॐ ह्रीं देशना लब्धि प्राप्ताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा ॥3॥
आर्य क्षेत्र मानुष भव पाय। पुरुषलिंग भवि भाव जु थाय। मन वच काय योग उत्कृष्ट । ता प्रभाव ता काल वशिष्ट कर्म मोहादिक स्थिति बिनु आप | कोटाकोटी अंत दधि धाय । बंधप्रदेश बंध थिति जान। यह जुग तिष्ठत है तिहि थान।। सोही नाम लब्धि प्रायोग्य लाभ माहिं यह भेद मनोग्य । ता धारक जिनवर भव हार। पूजूं द्रव्य जलादिक धार।। ऊँ ह्रीं प्रायोग्य नाम लब्धि प्राप्ताय अर्घं निर्वपामीति स्वाहा॥4॥
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