________________
ले बावन चंदन दाह निकंदन, अगर घिसन्दन नीर करी। तिस गंध लुभाया षट्पद आया, गुंज कराया हर्ष धरी।।
शुभ गंध मंगायो पात्र धरायो, बहु महकायो सुखदाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।2।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति स्वाहा।
ले अक्षत चोखे लखि निरदोखे, उज्जवल धोके हित धारी।
मुक्ताफल जैसे गंधित तैसे, दीरघ जैसे जो भारी।। निर्मलजु अखंडितसौरभ मंडित, शशिपद खंडित सुखदाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।3।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अक्षयपदप्राप्तये अक्षतान् निर्वपामीति स्वाहा।
बहु फूल जु लाया गंध लुभाया, रंग सुहाया सुखखानी। तसु माल बनाई सुभंग सुहाई, अलिगण भाई मनमानी।। मैं निज कर लायो हरष बढायो, जिन गुण गायो सुखदाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।4। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय कामबाणविध्वंशनाय पुष्पं निर्वपामीति स्वाहा।
नैवेद्य सु नीका रस जुत ठीका, सुखदा जीका गुण थानो। करि मोदक लाया मधुर सुहाया, थाल भराया थुति गानो।। जिन अग्र चढाऊ मुख गुण गाऊं, अति हरषाऊं सुख पाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।5।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यं निर्वपामीति स्वाहा।
646