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(दोहा) आकिंचन जो आदरे, शिव पहुंचावै सार। और सकलकर्मनि लटैं, इमि लखि गहु वृषसार।। आकिंचन को सेवतें, नशै करम बट मार। पूजौं मैं आकिंचना, ज्यों पाऊँ भव पार।।
ऊँ ह्रीं श्री आकिंचन्य-धर्मांगाय पूर्णाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
॥इति उत्तम आकिंचन्य धर्म पूजा संपूर्ण।
उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म पूजा
(अडिल्ल छन्द) नारि देव नरपशू काष्ठ चित्राम की, ब्रह्मचर्य व्रतधारिनके नहिं काम की। मनवचकाय मात सुता भगिनी गिने, ऐसोव्रत ब्रह्मचर्य पूजि हम अध हन।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांग ! अत्र अवतर अवतर संवौषट् आह्वाननम्।
ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांग ! अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः स्थापनम्। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांग ! अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् सन्निधिकरणम्।
अथाष्टकम् (त्रिभंगी छन्द) ले निर्मल पानी अति सुखदानी, उज्जवल आनी गंग तनौं। धरि कनक सुझारी भन हरकारी, निज करधारी हरष ठनौं।। करि भक्ति सुलाऊँ अति गुण गाऊँ, पुण्य बढाऊं सुखदाई।
जजि ब्रह्म सुचारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।1।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति स्वाहा।
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