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मणिदीपक करि या तिमिरसु हरिया, ज्योतिसु धरिया तेजखरा। धरि थाल सु लाया हरष बढाया, अतिगुण गाया नेह धरा।।
मैं करौं आरति गाय भारती, धर्म सारथी शिवदाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।6।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय मोहान्धकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति स्वाहा
करि धूप पियारी दशविधि धारि, गंध अपारी मनमानी। शुभ चंदन डारा अगर अपारा, द्रव्य सु प्यारा बहु आनी।।
अपने कर लाया नेह लगाया, अगनि जराया जस गाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।7।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय दुष्टाष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति स्वाहा।
ले लौंग बदामा श्रीफल कामा, खारिक ठामा हम लाये। पुंगीफल आदि बहुफल स्वाद भक्ति अराधी सुख पाये।। भरि थाल अपारा शिव फलकारा, पाप विडारा सुखदाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।।8।। ॐ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति स्वाहा।
जल चंदन लाया अखत सु भाया, फूल मिलाया गंध भारी। चरू दीपक आनो धूप दहानो, फल अधिकानो शिवकारी।।
वसु द्रव्य मंगाई अर्घ बनाई, भक्ति बढ़ाई शिवदाई।
जजि ब्रह्म जु चारी वर शिवनारी, आनंदकारी थिर थाई।। ऊँ ह्रीं श्री उत्तमब्रह्मचर्यधर्मांगाय अनध्यपदप्राप्तये अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
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