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मन वच काया ऐक थान थिरी लाइये। आरत रौद्र कुभाव सबै ढाइये।। या वपुतैं जिय भिन्न शुद्ध जानै सही। सो तप ध्यान अनूप पूजि लूं शिवमही। ऊँ ह्रीं श्री ध्यान- तपोधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥23॥
इधर तप के भेद बाहर सकल कर्म विनाशियो । यह कर्म भूधर नाश कारण वज्रसम जिन भाषियो।।
मैं जीव चाहैं तरन भवदधि, ते लहैं तप सारजी।
हम शक्तिहीन न करसकत, तातैं जजै उर धारजी ॥
ऊँ ह्रीं उत्तमतपोधर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 24॥
जयमाला
दोहा
तप तारैं भव उदधिसों, टारै पाप असाधि। धेरै महा सुख थल विषै, देहै ध्यान समाधि।। तप ही सार धरम है भाई, तप ही तैं मुनिवर शिव पाई। सिद्धक्षेत्रजे सिद्ध सजै हैं, ते सब पहिले तपहि भजे हैं ।। तप भव उदधि तरण नवकाया, तपको जस गणधर ने गाया । ये तप ही जग जिन सुखदाई, तात मात स्वामी तप भाई।। तपको तो तीर्थंकर ध्यावै, तप बिन मोक्ष कभी नहिं पावैं । तप शिव महल तनों मंग जानों, तपहीतैं सब कर्म हरानो || तप सा तीर्थ और नहिं कोई तप ही तारन सब विधि हो । तप शिव वाट दिखावन दीवा, तपहीतैं सुख होय अतीवा।।
तपतैं इन्द्री मन भट हारैं, तप निज बलतें मौह निवारें । तपको कायर जिय नहिं पावै, तपका महत पुरुष उमगावै।। अविचल तपतैं सुख बहु कोई, तपतै लच्छि अखें पुनि जोई।
तपतैं खानपान परमाना, तपहीतैं रस बिन सब खाना।।
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