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काय कसैं मन आनन्द पावै, सो तप काय कलेश कहावै। शोक हरै सुख करै महानो, सो तप जजौं कर्मगिरि भानो ।। ॐ ह्रीं श्रीकायकलेश-तपोधर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥17॥
(अडिल्ल छन्द)
मुनिको जो परमादवशी दूषण लगे। तत्क्षण गुरुपै जाय जु प्रायश्चित मगै।। जो आचारज दण्ड देय सो लेय ही। तप प्रायश्चित जजौं अरघ शुभ देय ही। ऊँ ह्रीं श्रीप्राश्चित तपोधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥18॥
देव धर्म गुरु और थान जो पूज हैं। तीरथ अतिशय सिद्धक्षेत्र अघधूज हैं।। तिनकी विनय अनूप करै तजि मानजी । सो तप विनय विचार जजौं शिवदानजी।। ऊँ ह्रीं श्रीविनय-तपोधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा॥19॥
जो मुनिको मग चलत तथा तप करत ही । उपजै तनमैं खेद कर्म बलतैं सही।। तो मुनिको करि पांव चम्पिये जो सुधी । सो तप वैय्यावृत्य जजौं नाशक कुधी।। ऊँ ह्रीं श्री वैय्यावृत्य-तपोधर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥20॥
जिन धुनि वाचै सुनै हरष करि चितवै । धरि जिनकी आम्नाय पाप मलको चवै।। सो तप है स्वाध्याय ज्ञान उर लावनो। सो यह तप मैं जजौं स्वर्ग पावनो ।
ॐ ह्रीं श्री स्वाध्याय - तपोधर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥21॥
काय ममत को त्याग यतिश्वर तिथि करै । काय त्याग तप धार कर्म अरि मद हरें । तप व्युत्सर्ग महान जानि मन भावनो। सो मैं पूजौं अर्घ धारि कर पावनो।।
ऊँ ह्रीं श्री व्युत्सर्ग-तपोधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।। 22।।
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