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सब जियमें धरि समता भाव, तप संयम करिवे को चाव।
आरत रोद्र भाव नहिं होय, संयम धर्म जजौं शुचि होय।। ऊँ ह्रीं सामायिकरूपसंयम धर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।17।
जो प्रमादवश संयम जाय, प्रायश्चित ले पुनि थिर थाय।
छेदोत्थापन नामा सोय, संयम धर्म जजौं शुचि होय।। ऊँ ह्रीं छेदोपस्थापनारूपसंयमधर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।18॥
दोय कोष नित गमन कराय, तननिहार नहिं बहु रिध पाय।
सो परिहार विशुद्धी जीय, संयम धर्म जजौं शुचि होय।। ॐ ह्रीं परिहारविशुद्धसंयमधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥19॥
सकल कषाय नाश है जाय, नाम मात्र कछु लोभ रहाय।
सूक्षम सांपराय है सोय, संयम धर्म जजौं शुचि होय।। ऊँ ह्रीं सूक्ष्मसांपरायरूपसंयमधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।200
सकल मोह नाशै जिस काल, या उपशमैं मोह जंजाल।
यथाख्यात में रहे न मोह, संयम धर्म जजौं शुचि होय।। ऊँ ह्रीं यथाख्यातरूपरूपसंयमधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥21॥
(अडिल्ल) इस प्रकार बहुत विधि को संयम जानिये। शिव-सुखदायक होय दया की खानिये। पूरण मुनि के होय धर्म हितदाय जी। ताहि जजौं मैं अर्घ थकी यश गायजी।।
ऊँ ह्रीं उत्तमसंयमधर्मांगाय महाध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।22॥
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