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सपरस इन्द्रिय विषय निवार, वीतरागता वरतै सार । नरसुर नारिक सब जिय, तिर्यक्गति में संज्ञि असंज्ञि। शीत उष्ण उर चाह न होय, संयम धर्म जजौं शुचि होय॥ ॐ ह्रीं असंज्ञीपंचेन्द्रियजीवरक्षणरूपसंयम धर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥11॥
रसनेन्द्रिय पांच भट जान, नित वश भये सकल गुणखान। रसनेन्द्रिय के वश नहिं होय, संयम धर्म जजौं मद खोय ॥
ॐ ह्रीं रसेन्द्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।12।।
घ्राणेन्द्रिय के भट दुइ जान नित प्रसाद जिय
दुख लहान घ्राणेन्द्रिय के वशि नहिं होय, संयम धर्म जजौं मद खोय ||
ऊँ ह्रीं घ्राणेन्द्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥13॥
चक्षु विषय भट जानों पांच, ते दुख देय सकल जिय सांच। अक्षयके वशनहिं होय, संयम धर्म जजौं मद खोय।।
चक्षु
ऊँ ह्रीं चक्षुरिन्द्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्मांगाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।14।
कर्णेन्द्रिय शुभाशुभ वैन ता वश होय सुरासुर ऐन।
शब्द शुभाशुभ वश नहि होय, संयम धर्म जजौं शुचि होय ||
ॐ ह्रीं कर्णेन्द्रियविषयवर्जनरूपसंयम धर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।। 15॥
मनचंचल कपिकी गति जिसौ तावश जगजिय दुखफँसी। मनके वश कबहूँ नहिं होय, संयम धर्म जजौं मद खोय।।
ॐ ह्रीं मनाविषयवर्जनरूपसंयम धर्मांगाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा।।16।
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