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श्री शान्तिनाथ स्तवन संसार सागर में भटकते, प्राणियों को हे प्रभो। आप के युगचरण ही तो, शरण दे सकते विभो।। दावाग्नि दुख-सन्तान की, सर्वत्र ही तो जल रही। मम मोह-माया ही निजातम, को यहां पर छल रही।1। क्रोधित भुजंगम के डसे, वहु प्राणियों के गात्र में।
गारुड़ी विद्या प्रशम करती, यथा क्षणमात्र में। प्रभु आपके चरणाम्बुजों का, ध्यान करते भक्ति से। सब विघ्न बाधाएँ विलय, होतीं निजातम शक्ति से।2। तप्तस्वर्ण के तुल्य आप के, दिव्यचरण का निर्मल ध्यान। भव-सागर में पड़े प्राणियों, के सुपार हित बनता यान।।
ज्यों यामिनी के घन-तिमिर में, लुप्त भू आलोक हो। प्रोद्यद्दिवाकर रश्मियां, करतीं प्रकाशित लोक को।3। जब तक नहीं होता उदय, रविरश्मि का संसार में। तबतक कमलश्री सुप्त रहती, है सतत का सार में। जब तक नहीं होती कृपा, भगवान के युग चरण की। तब तक नहीं है टूटती, जंजीर जीवन-मरण की।4। लोक आलोक विलोकन में, परिपूर्ण समर्थ जिनेन्द्र प्रभो। त्रयछत्रछटा रवितुल्य अनूप, विराजित ज्ञान के पुंज विभो।। पद-पंकज के गुणगान पुनीत से, पाप पलायन हो क्षण में। दर्पान्ध मृगेन्द्र के भीमनिनाद से, वन्य गजेन्द्र भगे रण में।5। प्रत्यूष बेला के ललित उज्ज्वल, दिवाकर सा विमल। नाथ का भामण्डलम् ज्यों, सोहता स्वर्णिम कमल।। दिव्यांगनाओं के प्रफुल्लित, नयन मन को मोहता।
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