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(गीता छन्द) मनुष क्रोध रु मान माया, लोभवश दुखिया घने। बहु चाह पीडित रागद्वेषी, अघ घनो उपजे तिने।। तिन देख यतिवर दया लावे, महा दीनदयाल जी।
सो धर्म उत्तम क्षमा निर्मल, जजौ भाग्यविशालजी।।12।। ऊँ ह्रीं मनुष्यजीव-परिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
परकार चारों देव गति में, जीव सुख राचै सही। लछि देखि परकी झरै तिनही, मानते पीड़ा कही।। तिन देखि मुनि उर दया भावें, महा कोमल भावजी।
सो धर्म उत्तम क्षमा पूजौं, अर्घतें कर चावजी।।13।। ऊँ ह्रीं चतुर्विधिदेवजीव-परिरक्षणरूपोत्तमक्षमाधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
(बंसरी छन्द) थावर तिरस जीवजब जोई चहुंगति करमनि के वशिहोई।
तिनको देखि दया उर लाई, सो उत्तम खम धर्म जजाई।। ॐ ह्रीं त्रसस्थावर समस्तजीव परिरक्षणरूपोत्तम क्षमाधर्मांगाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) धर्म क्षमा उत्तम बडो, सब जीवन सुखदाय। जजै जीव सो पुनि लहै, करैजु शिवपुर जाय॥
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