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धर्म सु-दैन जिमि तात माता सही। जानि इमि धर्म दशधा जजौं शिवमही।।10।
ऊँ ह्रीं श्री दशलक्षणधर्मेभ्यो महायं निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) दश वृष रतन मिलायके, माल करै भवि जोय। धरै आपने उर विर्षे तो सम और न कोय।।
(बेसरी छन्द) दशलक्षण वृष शिवमग दीवा, धर्म थकी सुख पावै जीवा। मुकति दीप पहुँचावन नावा, ये दश धर्म जजौं जुत भावा।। दशविधि धरम धरैजी कोई, करमनाशि फिर दुख नहिं होई। धरम जु साधन और न कोई, यों दया धर्म जजौं मद खोई।।
धरम जीवका पालनहारा, धरम मानका खण्डनवारा। धरम थकी जावै कुटिलाई इमि दस धर्म जजौं चितलाई।। सांच बचन सम धरम न आनौ, धर्म भव निर्मल पहिचानौ। धर्म-जीवरख इन्द्रिय जीतं, इमि लखि धर्म जजौं करि प्रीतम।।
तप ही सर्व धर्मका मूला, त्याग धरमतें क्षय अध थूला। धर्म गगन सम और न कोई, इमि दस धर्म जजौं मद खोई।।
नारी त्याग धरम शिवदाई, ये दस धरम जगत में भाई। जो दश लक्षण मनमें आने, सो भव तप हर शिवपद ठान।। दशलक्षण व्रत इह विधि कीजै, उत्कृष्टै दश वास करीजै।
नातर वेले पारन भाई, तथा इकतर वास कराई।। शक्तिहीन है तो सुन मिता, दश एकांत करौ धरी प्रीता। व्रत दश वर्ष करें मन लाई, करू उद्यापन मन वच काई।। नहिं उद्यापन शक्ति तुम्हारी, तो दूनौ व्रत करू सुखकारी।
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