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जिनचंद्र कुंदकुंद मुनि इंदा, मुनिगण मैं ज्यों उडुगन चंदा। उमास्वामी सूत्र के कर्ता, समंतभद्रबाहु दुःख के हर्ता।।12।। शिवकोटीरु शिवायन स्वामी, पूज्यपाद वंदू गुणधामी। एलाचार्य वीरसेन जानूं, जिनसेन नेमिचंद्र नै मानूं।13।। रामसेन तार्किक गुणधारी, अकलंक स्वामी बोध जितारी। विद्यानंदी मणिकनंदी, प्रभाचंद्र भवभय हरि फंदी।।14।।
रामचंद्र वासवचंद्र स्वामी, गुणभद्राचारिज हैं नामी। वीरनंदि आदिक गणस्वामी, सिद्धान्त चक्रवर्ति गुणधामी।।15।।
नग्न दिगंबर विद्या ईशा, पंचमकाल आदि गुणधीशा। जिनमत थापन बुद्धिगंभीरा, परमतनाशक जय महावीरा।।16।।
वारंवार त्रिकाल हमारी, तिन मन वंदन है सुखकारी। निरविकार मूल गुणधारी, निजसंपति द्यो मो अघहारी।।17।।
अष्टद्रव्यमय अर्घ बनाऊँ, पद पूजूं मैं गुणगणपाऊं। सम्यकज्ञान देहि मुझि ईसा, याचत हूँ पदतलि धरि सीसा॥18॥ ऊँ ह्रीं श्री जिनचन्द्रादि सर्वनिर्ग्रन्थ मुनिभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
समुच्चय महा अर्घ की जयमाला
(सर्वया तेईसा) पाणिपात्र धर्मोपदेश करि, भवसागरते भविजन त्यारें। तीर्थंकर पददायक भावन, षोडशचित्तविर्षे विस्तारै।। ग्रंथ त्यागि तप करें द्वादश, दशलक्षण मुनिधर्म संभारें। पंच महाव्रत पालत तिन पद, सीस नायकै मस्तक धारें।।
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