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इक सो तियांसी वर मझारा, पूनँ मैं उतरूँ भवपार।।6।। ऊँ ह्रीं पंचश्रुतिकेवलि पश्चात् सत्रययाशीताधिक एकशत वर्षमध्ये दशपूर्वधारक
विशाखाचार्यादि एकादशाचार्येभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
नक्षत्र अरु जयपाल मुनीसा, पांडव ध्रुवसेनादिक कंसा। आचारिज पंच एकादश अंगा, वंदन करत पाप हो भंगा।।7।।
ए मुनिशत अरु वरस तेईसा, माँहिभये गुण-गणके ईसा।
पूर्छा कर ले अरघ मुनीसा, सकल दोस क्षयकार गणीसा।।8।। ॐ ह्रीं दशपूर्व पश्चात् शताधिक त्रिविंशति वर्ष मध्ये नक्षत्राचार्यादि एकादश अंगधारक
मुनीश्वरेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
सुभद्र और यशोभद्र नामा, भद्रबाहु लोहाचार्य बखाना।
चार घाट सत्याणव वरसा, माँहि भये इक अंग धर परसा।।9॥ ॐ ह्रीं एकादश अंगधारक पश्चात् सप्तनवति वर्षमध्ये सुभद्रादि एक अंगधारक मुनीश्वरेभ्यः
अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
अर्हद्वलि अरु माघ जु नंदी, धरसेनाचारिज गुणवृंदी। पुष्पदंत भूतबलिनामा, अंग अंशधारी अभिरामा।।10। सोरु अठारह वरसु जु मांही, विद्यागुण करि सब अधिकांशी।
अरघ लेय पद पूज करांही, तारौं मो सब पाप नसांही।।11।। ऊँ ह्रीं एकांगधारक मुनीश्वर पश्चात् अष्टादशाधिकशत वर्षमध्ये अंगांशगधारक मुनीश्वरेभ्यः
अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
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