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(अडिल्ल) अक्षीण महानसि रिद्धिधार जो ऋषि य। ताका घर तैं दुःखभार आपद भज।। ऋद्धि वृद्धि है अखै सकल गुण-सिद्धि है। केवलज्ञान लहाय अचल समृद्धि है।।
।इत्याशीर्वादः पुष्पांजलि क्षिपेत्॥
॥ इति लक्षीणमहानस ऋद्धिधारक अष्टम कोष्ठ पूजा संपूर्णा।।
पंचम काल की आदि मुनि भये तिनकी पूजा का अर्घ
(चौपाई रूपक) गौतम स्वामि सुधर्म जु स्वामी, जंबू स्वामी अति अभिरामी। वीर जिनिंद पछै त्रय नामी, बासठि बरस मध्य शिवगामी।।1।। पंचमकाल आदि के माँही, केवलज्ञान लड्यो सुखदाही।
तिनकूँ पूनँ अरघ चढ़ाई, ता फल केवलज्ञान लहाई।।2।। ऊँ ह्रीं श्री वर्धमान जिनेन्द्राय पश्चात् द्विषष्ठिवर्षमध्ये केवल ज्ञानधारक त्रिमुनीश्वरेभ्यः अर्घ
निर्वपामीति स्वाहा।
विष्णु नंदि मित्र मुनिराई, अपराजित गोवर्धन भाई। भद्रबाहु ए पंच मुनिंदा, सब श्रुतधारक भये अनिंदा।।3।।
सत् संवत्सर में सुखदाई, तिनके चरण नमूं सुखदाई।
वसु द्रव्य ले अर्घ बनाई, पूजत हूँ मैं मन वच काई।।4।। ऊँ ह्रीं केवलि त्रय पश्चात् शतवर्षमध्ये पंच श्रुत केवलिभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
विशाख प्रोष्ठिल क्षत्रियजया, चारित्र नागसेन मुनि हुआ। सिद्धारथ धृतिषेण मुनीसा, विजय बुद्धिलाचार्य यतीशा।।5।।
गंगदेव धर्मसेन मुनिंदा, ये दस पूरब धरै यतींदा।
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