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गुरु
मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।11॥
धनिदिवस धनिवा धड़ी, धनि मेरा तब भाग। ऐसे मुनिवर कैं विषै, करें दान अनुराग॥ मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज ॥12॥
गुरु
धनि युगल पद होय तब करें जात ऋषिराज । धन्य हृदय है ध्यान तैं, ध्याऊँ निज हितकाज मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।13॥
वै
गुरु
दरस करूँ तुम चरन की, चक्षु धन्य जब थाय । करण सफल युग होंय तब, वचन सुनैं ऋषिराय ।
वै
वै
गुरु
मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज ॥14॥
पूज करूँ तुम चरनकी, कर युग धनि जब थाय ।
वै
सीस धन्य तब ही हमैं, नमत चरन ऋषिराय।। गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज ॥15॥ मो किंकर की वीनती, सुनिये श्री रिषिराज भवदधि दुखभयतैं मुझे, डूबत काढ़ों आया। गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।16।। बार बार विनती करूँ, मन वच शीश नवाय।
वै
पारस रूपमय है रह्यो, मो निजरूप कराय ।।
मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज ॥17॥
वै
गुरु
(धत्ता)
उर निज ध्याऊँ सीस नवाऊँ, गाऊँ गुण मैं है चेरा।
पद अजरामय सकल गुणामर, द्यो मुक्ति हरि भव फेरा॥18॥
ऊँ ह्रीं अक्षीण महानस ऋद्धिधारकसर्वमुनीश्वरेभ्यः जयमाला अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
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