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जयमाला
(छंद कडरवाँ) अक्षीण महानसि रिद्धि भरा, तिनके पद वंदित सर्वनरा।
मैं ध्यावत हूँ गुणगावत हूँ, मोहि दीजे ऋषिवर सिद्धधरा।।1।। पक्षमास के पारणे, अहार करन के काज। मुनिवर करत विहार हैं, ईर्यापथ कूँ साज।।
__ वै गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।2।। धनाढ्य दरिद्री घर तणे, तिनकै नाहीं भेद। चांदी चर्या धरत हैं, लाभ अलाभ न खेद।।
वै गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।3।। अयाचीक जिनवृत्ति है, मुख नै नाहिं कहात। केवल देंहि दिखायकैं, खड़े रहत नहीं भ्रात।।
वै गुरु मो हिरदै सो, तारणतरण जिहाज।।4।। जो गृहस्थ शुभ भक्ति धरि, प्रासुकजल भंगार। ताहि दिखावै ताहि वह, खड़ेरहत तिहि वार।
वै गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।5।। प्रक्षालन मुनिचरण कौं, पूज करै हरषाय। मनवचनकाया शुद्धि करि, नमन करतशिर नाय।।
__ वै गुरु मो हिरदै वसो, तारणतरण जिहाज।।6।। तिष्ठ तिष्ठ ऋषिराज इत, खानपान है शुद्ध। इहनवधा मुनिभक्ति लखि अहारकरत अविरुद्ध।।
वै गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।7। ऋद्धा भक्ति सुभक्ति जुत, ईर्षा लोभ हरंत। दया क्षमा यहगुण धरै, ताधरि अहार करंत।।
वै गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।8।। षट् चालीस जु दोष तजि अंतराय बत्तीस। चौदा मल वर्जित सदा, अहार करत गुरुईस।।
वै गुरु मो हिरदै बसो, तारणतरण जिहाज।।9।। मुनिवर आहार प्रभावतें, गृहस्थ धरनि कै दाँहि। देव करै नभतहाँ, रतन वृष्टि सुखदाँहि।।
वै गुरु मो हिरदै वसो, तारणतरण जिहाज।।10। कल्पवृक्ष के पुष्प अरु, जल सुगंध वरषांहि। धन्य दान-दातार, धनि, पंचाश्चर्य करांहि।।
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