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अथ प्रत्येक पूजा (सोरठा) द्विविधि प्रकार सुजानि, अक्षीणमहानसरिद्धि यह।
होय पाप की हानि, ता धारक मुनिवर यजत।।1।। ऊँ ह्रीं द्विविध प्रकार अक्षीण महानस रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम निर्वपामीति स्वाहा।
(छन्द-कुसुमलता) अहारकरै जाकै घर मुनिवर, तादिन अहार अटूट है जाही। चक्रवर्ति सेना सब जी मैं, तो भी वे दिन टूटत नाँही।।
वै अक्षीण महानसरिद्धिधर, यतिवर वंदू सीस नवाई। तिनके पद पूजतजो अहनिसि, नवनिधि है जिनके घरमाहीं।।2।। ऊँ ह्रीं अक्षीण महानसरिद्धिधर सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
च्यार हाथ घर माँहि मुनीश्वर, तिष्ठत सब जीवन सुखदाई। ता थानक इंद्रादिक सब अरु, चक्रवर्ति की सैन्य समाई।। भीर तहाँनहिं होय सर्व जिय, सुखमय तिष्ठत जामधि भाई।
अक्षीणमहालय रिद्धिधार गुरु तिनकूँ पूजूं मन वच काई।।3।। ॐ ह्रीं अक्षीण संवासरिद्धिधर सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) जो ऐसी रिधि 1 धरै, जे ऋषिराज महान्। तिनः पूनँ अर्घ दे, देंहि यथारथ ज्ञान।।4।। ॐ ह्रीं द्विप्रकार अक्षीण महानसरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
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