SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 575
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ लोभ सर्व जिन को गयो जी। धरि संतोष महान। शौच धर्म यह धारि के जी। भए चित्त अम्लान।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि॥6॥ छऊँ काय के जीव की जी। करुणा है अधिकाय। पाँचों इंद्री वसि करी जी। संयमधरि चितलाय। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।7॥ द्वादश विधि तप को तपें जी। अंत बाह्य महान्। ध्यावे निज चिद्रप पू जी। ध्यान सुधारस पान।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।8।। ___सर्व परिग्रह त्याग कर्यो जी। ज्ञान दाननिति देय। जाति जीव कूँ अभय दयो जी। त्याग धर्म धरि एव।।रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।9 बाह्य नग्नता अति लसे जी। अंतरंग अति शुद्ध। ममत तज्यो निज देह V जी। आकिंचन व्रत इद्ध।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।10। सहस अठारा शील कूँ जी। पालत मन वच काय। ब्रह्मचर्य ऐसे धरै जी। आतम में रति थाय।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।11॥ याविधि दशपरकार को जी। जिन भाषित जो धर्म। ताहिशुद्ध धार्यो मुनी जी। मेटि पाप के कर्म।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।12।। ऐसे हम मुनिराज 1 जी। नमत शीस धरि हाथ। बाँह पकरि भवसिन्धु तैं जी। काढ़ो मो कँ नाथ।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।13। सरूप तिहारो हृदय विसैं जी। धार्यो मैं लय लाय। भवसागर को भय मिट्यो जी। या तें त्रिभुवनराय॥ रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।14। (धत्ता) ऐसी गुणमाला परम रसाला जो भविजन कंठे धरई। हनिजनि मरणावलि नासि भवावलि, मुक्ति रमा वहनर वरई।।15।। ॐ ह्रीं षट् प्रकार रसरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यो जयमालाघु निर्वपामीति स्वाहा।। 575
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy