________________
विष अमृत मुनि कर है जाय, वच अमृत सम पुष्ट कराय।
अमृतस्रावी रसरिधि यही, ता धर पूजे है शिवमही।।7।। ॐ ह्रीं अमृतस्राविरस रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा) ये रस रिधि के भेदयुत सर्वरिषीश्वर पाय।
मन वच तन करि पूजि हूँ हरषित चित अधिकाय।।8।। ॐ ह्रीं आशीविषं विष आदि अमृतस्रावि पर्यन्त षट्-रसरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः पूर्णार्धम्
निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (सवैया) रस परित्याग को मुनिराज, तिन्हें फलरारस रिद्धि उपाई। अहार रसादिक त्याग करै तिन के पद वंदित सीस नवाई।। सो रिषिराज करो हम काज हरो अघ साज सु पुण्य बधाई। मनवचकाय त्रिकाल त्रिकाल धरों तिनपाद सदा उर माहीं।।1।।
(बाल वीर जिनन्द की)
दुष्ट करै मुनिराजकूँ जी। कर्कश वचन महान्। अति कठोर कटुनिंद्य सुणिजी। क्रोध करें नहिं मानारिषीश्वर बसौ हृदय के माँहि।।2।।
कुलजात्यादिक बुद्धि को जी। तन को नहिं अभिमान। कोमल उर करुणामई जी। मार्दव धर्म महान।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।3।।
कूट कपट सब त्यागियो जी। रंच न हिरदा माँहि। ये ही आर्जव धर्म धरै जी। मन वच बन्दू ताहि।। रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।4।।
हित मित सत्यजु वाक्य पू जी। बोलत वै मुनिराय। धर्मोपदेश तें अन्य किछू जी। बोलत नाँहि सुभाय।।रिषीश्वर बसो हृदय के माँहि।।5।।
574