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अथ प्रत्येक पूजा
(सोरठा) रस रिद्धि षष्ठ प्रकार, तिनके धारें जे मुनी। रोग क्षुधा निर-वार पूनँ अरघ चढ़ाय कै।।1।।
ॐ ह्रीं षट् प्रकार रसरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
(चौपाई) करम उदै कोउ कारन पाय, क्रोध थकी मरि वच निकसाय।
सो प्राणी तत्काल मराय, ते आसीविष यजन कराय।।2।। ऊँ ह्रीं आशीर्विषंविष रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
क्रोध दृष्टि मुनि की जो परै, परतें ही तत्काल जु मरे।
दृष्टि विषारस रिधिधर मुनी, यजन करूँ मैं तिनकूँ गुनीं।3।। ॐ ह्रीं दृष्टिविषंविष रसरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
क्षीररहित आहार जि कोय, सो मुनि कर रस दुग्ध जु होय। मुनि वच दुग्धसम पुष्टि कराय, क्षीरस्रावि-धर अरचूं पाय।।4।। ऊँ ह्रीं क्षीरस्रावि रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
मिष्ट रहित जो मुनि कर आहार, होय मिष्ट रस सहित जु सार।
मुनिवच पुष्टि करत मधुसमा, मधुस्रावी रिधि पूजत हमार।।5।। ऊँ ह्रीं मधस्राविरस रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
घृत करि रहित अहारकर मुनी, घृत संयुक्त होय बहु गुनी। _वच मुनि के घृत सम गुण करै, सर्पिस्रावि रस पूजन करें।।6।। ऊँ ह्रीं घृतस्रावि रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
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