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तप रिधि धारक जे मुनी, वंदू तिन सीस नवाई जी।।14।।
ऐसैं द्वादश तप तपै, तिन के है केवलज्ञानो जी। सकल करम नासि कै, पद पावत है निरवाणो जी।। तप रिधिधारक जे मुनी, वंदू तिन सीस नवाई जी।।15।
ऐसे मुनि तिष्ठत जहाँ, तहाँ मरी आदि सब रोगो जी। सिंह सर्प डायिणि शाकिनी, नासै भूत प्रेम शोको जी।। तप रिधि धारक जे मुनी, वं तिन सीस नवाई जी।।16।।
ऐसे गुरु हम को मिलें, तब हो है हम निस्तारो जी। या मुनि चरननि विर्षे, अब लाग्यो ध्यान हमारो जी।। तप रिधि धारक जे मुनी, वं, तिन सीस नवाई जी।।17॥
(दोहा) सुनहु हमारी वीनती, हे रिषिवर! चितलाय। निज सरूप मय मो करो, पूर्जे मन वच
___ काय।।18॥ ऊँ ह्रीं तपोऽतिशयसरिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः जयमालाघु निर्वपामीति स्वाहा।
(दोहा)
दयामई जिनधर्म ये, वृद्धि होऊं सुखकार। सुखी होऊ राजा प्रजा, मिटो सर्वदुःख भार॥1॥
।इत्याशीर्वादः॥
।।इति तपोऽतिशयरिद्धिधारक चतुर्थकोष्ठ पूजा।।
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