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ग्रीषम रित पर्वत शिखर, वर्षा में तरुतल ध्यान जी।
शांत नदी तट चौहटै, तप कायक्लेश महान् जी।। तपरिधि धारक जे मुनी, वंदँ तिन सीस नवाई जी।।7।। बाहिज षट् विधि तप यही, सब कर्म निर्जरा थानूं जी।
आभ्यंतर तप भेद कूँ, धारत पद है निरवाणूंजी।। तप रिधि धारक जे मुनी, बंदू तिन सीस नवाई जी।।8।। प्रायाश्चित तप भेद तें, सौधो संयम अतिचारो जी।
रातदिवस में दोष जे, लागै तिन को निरवारो जी।। तप रिधि धारक जे मुनी, वंदू तिन सीस नवाई जी।।9।। दर्शन ज्ञान चरित्र को, अर तप को विनय करावै जी।
इनके धारक को करै, सो विनयाचार कहावै जी। तप रिधि धारक जे मुनी, वं, तिन सीस नवाई जी।।10। दशप्रकार के मुनिन की, धरि भक्ति हृदय के माँही जी।
टहल करै मृति रोग में, वैय्यावृत तप सुखदाई जी।। तपरिधि धारक जे मुनी, वंदँ तिन सीस नवाई जी।।11।। वाचन पृच्छन चितवन, अरु आज्ञा सर्वग्यकी धारै जी।
धर्मोपदेश विधि पंच, ये तप स्वाध्याय संभालै जी।। तप रिधि धारक जे मुनी, वंदँ तिन सीस नवाई जी।।12॥
बाह्य अभ्यंतर उपधि कूँ, त्याग करो सम भावो जी। तप व्युत्सर्ग महान् है, तन ममत तजै करि चाहो जी।। तप रिधि धारक जे मुनी, वंदू तिन सीस नवाई जी।13।।
आर्त रौद्र दुर्ध्यान हैं, तिन दूं मन वच त्यागे जी। धर्म शुक्ल शुभ ध्यान द्वै, ध्यावै तिन कूँ अनुरागे जी।।
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