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जयमाला (दोहा)
तपोरिद्धिधारक मुनी, भये सकल गुणपाल । तिन की श्रुति हूँ करत हूँ थूथ गुनन की
माल॥1॥
(ढाल)
आगम की कर्म निर्जरा करन कूँ।
करम निर्जरा करन कूँ, संवर करि शिव सुखदाई जी। बाह्य अभ्यंतर तप करें, द्वादश विधि वै हरषाई जी ।। तपरिधिधारक जे मुनी, वंदूँ तिन सीस नवाई जी।।1।
षष्टम अष्टम आदि दे, उपवास करैं षट्मासा जी॥ अनशनतप इहविधि धरै, छाँड़ी सब तन की आसाजी॥ तपरिधिधारक जे मुनी, वंदूं तिन सीस नवाई जी॥2॥ बत्तीस ग्राम भोजन त, तिन मैं घटिलै आहार जी । उन्नोदर तप कूँ धरै, मम अशुभ करम निरवारो जी।। तपरिधि धारक जे मुनी, वंदूं तिन सीस नवाई जी॥3॥ वृत्ति अटपटी धारि कै, भोजन करि हैं अविकारी जी । वृत्ति परिसंख्या तप तणीं, विधिधारी करि विस्तारो जी तपरिधिधारक जे मुनी, वंदू तिन सीस नवाई जी॥4॥ षट् रसमय भोजन विषै, रस त्याग लेत आहारो जी | रस परित्याग जु तप करैं, मोकूँ भवसागर त्यारो जी।। तप रिधि धारक जे मुनी, वंदूँ तिन सीस नवाई जी॥5॥ ग्राम्य पसूजन नहीं तहाँ, परतव वन नदिन किनारोजी।
शून्य गुफा में जे रहैं, विवक्त शय्यासन धार्यो जी। तप रिधि धारक जे मुनी, वंदूँ तिन सीस नवाई जी ॥ 6৷৷
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