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जयमाला (गीता छंद) वज्रधर अरु चक्रधर अरु धरणिधर विद्याधरा। तिरसूलधर अरु काम हलधर सीस चरणनि तल धरा।।
ऐसे रिषीश्वर रिद्धि विक्रियधरी जिनके पदकमल। वंदू सदा मन वच तन करि हरो मेरे कर्म मल।।1।।
(ढाल त्रिभुवन गुरु की) संसार अपाराजी, मिथ्यात अंधारा जी। या मैं दुखभारा, चतुरगति कै विषै जी।।2।। नरकन के माँही जी, कहूँ साता नाहीं जी। सागर बहुजाई दुख भुगत्या घणा जी।।3।। तिरयंच गतिधारी जी, पशुकाया सारीजी। ता मैं दुःख भारी भूख तृषातणों जी।।4।। कोइ लाधै बाँधे जी, धरि जूड़ा काँधै जी। बहु राधै अरमारै निर्दय नर घणों जी।।5।। मानुष भव माँही जी, सुख है छिन नांहीं जी। सबकूँ दुःखदाई गर्भज वेदना जी।।6।। बालक वय माँही जी, कछु ज्ञान न नांहीं जी। पाई तरुणाई विषय चिंता घणी जी।।7। बहु इष्ट वियोगाजी, भए अशुभ संयोगा जी। तातें दुख भुगत्या छिण समता नांहीं जी।।8। तीजो पण आयोजी, बहुरोग सतायो जी। इहि विधि दुख पायो मनुष भव में सही जी॥9॥
सुरपदई माँहीजी, माला मुरझाई जी। चिंता दुःखदाई भोगी मरण की जी।।10॥ इहि विधि संसारा जी, ताको नहीं पाराजी। इहजंणि असारा तजि राग मुनि भये जी।।11।
गृह भोग विनश्वर जी, जाणे योगीश्वर जी। पद त्यागि अवनीश्वर लीनी वन मही जी।।12॥ तप बहुविधि कीन्हो जी, निज आतम चीन्होजी। सकलागम भी नो मुनीपद जै धरै जी।।13।।
बहुरिधि को धारैजी, नहिं कारिज सारै जी। आतमगुण पालै लगे निज काज कूँ जी।।14।। विक्रियरिधि धारी जी, मुनिवर अविकारी जी। तिन के गुणभारी कहाँ लो वरणऊँ जी।।15।। ऐसे मुनिवर को जी, कब है हम ओसर जी। धनि धनि वह धोसर मुनि मों कूँ मिलें जी।।16।।
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