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परवतभेदि निकसि वै जावैं, छिद्र न है ता माँही। रुकै नहीं काहू सैं विचरत, अप्रतिघात रिधि पाई।।
मुनीश्वर पूजों अरघ चढ़ाई, ज्या विक्रियारिधि पाई। मुनीश्वर, पूजूँ अरघ चढ़ाई ॥10॥ ऊँ ह्रीं अप्रतिघात रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
देखत सबके परछन हो है, काहू कै दृष्टि न आई। अन्तर्धान रिद्धि है एही, तपबल परगट थाई।।
मुनीश्वर पूजों अरघ चढ़ाई, ज्या विक्रियारिधि पाई। मुनीश्वर, पूजूँ अरघ चढ़ाई ॥11॥ ॐ ह्रीं अन्तर्धान रिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
मन वांछित जो रूप बणावै जो होवै मन माँही। कामरूपिणी रिद्धि यही है, तपबल यह उपजाई ।।
मुनीश्वर पूजों अरघ चढ़ाई, ज्या विक्रियारिधि पाई। मुनीश्वर, पूजूँ अरघ चढ़ाई ॥12॥ ऊँ ह्रीं कामरूपित्व विक्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
तप महात्मजैं एह, विक्रिय रिधि उपजी जिन्हैं।
मन वांछित फल लेय, पूजै ध्यावै जो तिन्है।
मुनीश्वर पूजों अरघ चढ़ाई, ज्या विक्रियारिधि पाई। मुनीश्वर, पूजूँ अरघ चढ़ाई ॥13॥ ऊँ ह्रीं अणिमादि कामरूपित्वपर्यन्त एकादश सर्वविक्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
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