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पन्नल परिगमन करता, पत्रजीवन बाधा रंचा।
यह पत्र चारण मुनि पूजें, तिन तें सब पातक धू ।।6।। ऊँ ह्रीं पत्र चारण क्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
बीजन परिमुनि विचराहीं, बीज जीव बाधा नाहीं।
जे चारण बीज रिषीश्वर, तिन पूजै हैं अवनीश्वर।।7।। ऊँ ह्रीं बीज चारण क्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
श्रेणीवत गमन करता, सब जीव जाति रक्षता।
श्रेणी चारण ते कहिये, पूजें तें वांछित पइये॥8॥ ऊँ ह्रीं श्रेणिचारण क्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
जे अग्निशिखा परि चालें, सो अग्निशिखा नहिं हालै।
ते अग्नि चारण मुनि पूर्जे, तिनको शिव मारग सूज।।9।। ऊँ ह्रीं अग्निचारण क्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
पालैं आज्ञा जिन शासन, कायोत्सर्गादिक आसन।
धरि गमन करें नभ माँही, नभ चारण पूज कराहीं।।10॥ ऊँ ह्रीं नभ चारण क्रियारिद्धिधारक सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घम् निर्वपामीति स्वाहा।
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