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________________ द्वादश योजन बहुत अधिक हो, शब्द श्रवण बल थाई। दर श्रवण रि द्धिधर रिषिवर के, चरण कमल शिर नाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! दूर श्रवण, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥13॥ ॐ ह्रीं दूरश्रवण-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। दशम पूर्व सिधि होय तबै तहाँ, महा विद्या सब आई। आज्ञा माँगै कायकरण की, मुनि तिनकूँ नहीं चाही।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! दशम पूर्व, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥14॥ ॐ ह्रीं दशपूर्व-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। चौदह पूरव धारण होवै, तप प्रभाव मुनि राई। चौदह पूर्व धरण समरथ तिन, मन वच सीस नवाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! चौदह पूरव, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥15॥ ॐ ह्रीं चतुर्दशपूर्व-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। अंतरिक्ष अरु भौम अंग स्वर, व्यंजन लक्षणताई। छिन्न स्वप्न अष्टांग निमित लखि, होनहार बतवाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! अष्टांग निमित्त, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई!।।16। ऊँ ह्रीं अष्टांगनिमित्त-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा। बिना पढ़े ही जीव द्रव्य के, सकल भेद बतवाई। चौदह पूर्वज्ञानधर सम सब, भेद देय __समझाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! प्रज्ञाश्रमण, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥17॥ 534
SR No.009254
Book TitleVidhan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorZZZ Unknown
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages1409
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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