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ऊँ ह्रीं प्रज्ञाश्रमण-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
पर पदार्थतें आप भिन्न है, जीव इहै लखवाई। यातें दिगंबर दृढ़ मुद्रा धरि, पर की चाह
मिटाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! प्रत्येक बुद्धि, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥18॥ ॐ ह्रीं प्रत्येकबुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
परवादी सब वाद करन कँ, रिषिवर सन्मुख आई।
स्याद्वाद करि तिन वच खंडन, विजय ध्वजा थहराई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! वादित्व, रिद्धिधर धीर। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥19॥ ॐ ह्रीं वादित्वबुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
(अडिल्ल) केवल रिधिनैं आदि बुद्धि, रिद्धि अष्टादश। धारक जिन के नगन दिगंबर, सर्व देश दिशा
समुच्चय अर्घ चढ़ाय, पूजि हो सर्वदा। सर्वविघ्न करि नास, बुद्धि द्यो शर्मदा।।20। ऊँ ह्रीं केवलऋद्धि आदि वादित्व रिद्धि पर्यंत अष्टादश बुद्धि रिद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः
पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
जयमाला (दोहा) सर्वसंघ मंगल करन, बुद्धि रिद्धिधर धीर। मुनी तास थुति करत ही, बुद्धि शुद्धि है वीर।।1।।
(छंद वेसरी) प्रथम अंग आचार जु जान्यो, मुनि आचरन तासतें मान्यो। सहस अठारह पद लखि या के, परर्फे त्यागि आप रंगराचे।।2।।
सूत्र कृतांग अंग है दूजो, सूत्र अर्थ सामान्य जु बूजो।
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