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सर्वग्रंथ को एक पाद लखि दे सब ग्रंथ सुनवाई। पादनुसारिणी बुद्धि यही है, याहि धेरै मुनिराई ||
मुनीश्वर पूजो हो भाई ! पादानुसार, रिद्धिधार । मुनीश्वर, पूजो हो भाई ! ॥ 8 ॥
ऊँ ह्रीं पादानुसारिणी-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
नव योजनतें बहुत अधिको, स्पर्शन बल अधिकाई।
दूर स्पर्श रिद्धिधारक रिषिवर, चरण चित्त लव लाई।।
मुनीश्वर पूजो हो भाई ! दूरस्पर्श, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई ! ॥9॥
ऊँ ह्रीं दूरस्पर्श-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
नवयोजन तें अधिक स्वादबल, रसनेन्द्रिय में थाई ।
दूरास्वादन रिद्धिधारक मुनि के, चरणों शीश नवाई ।।
मुनीश्वर पूजो हो भाई ! दूरास्वादन, रिद्धिधार । मुनीश्वर, पूजो हो भाई ! ॥10॥ ॐ ह्रीं दूरास्वादन - ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
नवयोजन तें बहुत अधिक की, गंध नासिका जाई।
दूरगंध रिद्धिधर मुनिवर तिन चरणों शीस नवाई।
मुनीश्वर पूजो हो भाई ! मनपर्यय, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥11॥
ॐ ह्रीं दूरगंध-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति स्वाहा।
सहससजाल रुद्विशत त्रेसठि योजनतें अधिकाई ।
चक्षुइन्द्रियबल अधिक अनोपम, दूर दृष्टि रिधि पाई।।
मुनीश्वर पूजो हो भाई ! दूरावलोक, रिद्धिधार । मुनीश्वर, पूजो हो भाई ! ॥12॥ ॐ ह्रीं दूरावलोक-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घं निर्वपामीति
स्वाहा।
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