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अविभागी पुदगल परमाणू, सो परतक्ष लखाई।
अवधिबुद्धि ऋद्धिधार मुनीश्वर, चरनकमल शिरनाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! मनपर्यय, रिधिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥4।। ॐ ह्रीं अवधि-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
कोष्ट माँहि जो वस्तु भरी है, मनवांछित कढवाई।
प्रश्न करत ही शब्द अर्थ मय, शास्त्र सर्व रचवाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! जे कोष्ट, रिधिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥5॥ ॐ ह्रीं कोष्ठ-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
बीज बोय ज्यों भूमि माँहि कृषि, बहुत धन्य निपजाई।
बीज एक त्यों धारि चित्त रिषि सर्वग्रंथ बनवाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! बीज बुद्धि, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥6॥ ऊँ ह्रीं बीज-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
चक्रवर्ती की सब सेना के, जीव अजीवरु ताई।
युगपद् सबद सुनें जो श्रवणन, सब धारण है जाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! संभिन्न श्रोत, रिद्धिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥7॥ ऊँ ह्रीं संभिन्न-संश्रोतृ-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।
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