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सब द्रव्य अष्ट भरि थार बहुविधि तूर बसें, करि गीत नृत्य उत्साह हरष अरघ सजें। श्री ऋद्धिधर चरण चढ़ाय फल यह माँगत हौं, मम बुद्धि द्यो सार जोरि कर याचत हौं।॥9॥ ॐ ह्रीं अष्टादश बुद्धि ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपद प्राप्तये अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।
अथ प्रत्येक पूजा
दोहा अष्टादश बुद्धि ऋद्धि के, धारक जे ऋषिराजा तिन्हें अर्घ प्रत्येक करि, यजूं बुद्धि के
काज।।1।। ऊँ ह्रीं अष्टादश बुद्धि ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
(चाल टप्पाकी) सकल द्रव्य पर्याय गुणनि कर, समय एक लखवाई।
लोक अलोक चराचर जा मैं, हस्तरेख समझाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! केवल बुद्धि, रिधि धार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥2॥ ऊँ ह्रीं केवल-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति स्वाहा।
ढाई दीप के सब जीवन की, मन की बात लखाई।
युगपत् एक काल में जानें, मनपर्यय रिधि पाई।। मुनीश्वर पूजो हो भाई ! मनपर्यय, रिधिधार। मुनीश्वर, पूजो हो भाई! ॥3॥ ॐ हीं मनः पर्यय-बुद्धि-ऋद्धिधारकेभ्यः सर्वमुनीश्वरेभ्यः अनर्घपदप्राप्तये अर्घ निर्वपामीति
स्वाहा।
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