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कोष्ठ धरे वीजानिको, जानत जिम क्रमवार। तिम जानत ग्रन्थार्थ को, पूजू ऋषिगुण सार।।
ऊँ ह्रीं कोष्ठबुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।202॥
ग्रन्थ एक पद ग्रह कहीं, जानत सब पद भाव। बुद्धि पाद अनुसारि धर, जजूं साधु धर भाव।
ऊँ ह्रीं पादानुसारीबुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥203॥
एक बीज पद जानके, कोटिक पद जानेय। बीज बुद्धि धारी मुनी, पूजू द्रव्य सुलेय।।
ऊँ ह्रीं बीजबुद्धिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।204॥
चक्री सेना नर पशू, नाना शब्द करात। पृथक् पृथक् युगपत सुने, पूजू यति भय जात।।
ऊँ ह्रीं संभिन्नश्रोत्रऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।205।।
गिरि सुमेरू रविचन्द्र को, कर पद से छू जात। शक्ति महत् धारी यती, पूजू पाप नशात।।
ऊँ ह्रीं दूरस्पर्शशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥206॥
दूरक्षेत्र मिष्टान्न फल, स्वाद लेन बल धार। ना वांछा रस लेनकी, जजू साधु गणधार।
ऊँ ह्रीं दरास्वादनशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।206।।
घ्राणेन्द्रिय मर्याद से, अधिक क्षेत्र गन्धान। जान सकत जो साधु हैं, पूजूं ध्यान कृपान।।
ऊँ ह्रीं दूरघ्राणविषयग्राहकशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।208।।
नेत्रेन्द्रिय का विषय बत, जो चक्री जानन्त। तातें अधि क सुजानते, जजू साधु बलवन्त।।
ऊँ ह्रीं दूरवलोकनशक्तिऋद्धिप्राप्तेभ्यः अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।209।।
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