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धरणेश सुनृप उपजाए, पद्मप्रभ नाम कहाये।
है रक्त कमल पग चिन्हा, पूजत सन्ताप विछिन्ना।। ऊँ ह्रीं पद्मप्रभजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥47॥
जिनचरणा रज सिर दीनी, लक्ष्मी अनुपम कर कीनी। हैं धन्य सुपारश नाथा, हम छोड़े नहिं जग साथा।। ऊँ ह्रीं सुपार्शवनाथजिनेन्द्राय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥48।।
शशि लषि उत्तम जग में, आया वसने तव पग में। हम शरण गही जिन चरणा, चन्द्रप्रभ भवतप हरणा।। ऊँ ह्रीं चन्द्रप्रभजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥49॥
तुम पुष्पन्त जितकामी, है नाम सुविधि अभिरामी। बन्दूँ तेरे जुग चरणा, जासे हो शिवतिय वरणा । ॐ ह्रीं पुष्पदन्तजिनाय अध्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥50॥
श्री शीतलनाथ अकामी, शिवलक्ष्मी वर अभिरामी । शीतलकर भव आतापा, पूजूँ हर मम संतापा ऊँ ह्रीं शीतलनाथजिनाय अघ्यं निर्वपामीति स्वाहा॥51॥
श्रेयांस जिना जुग चरणा, चित धारूँ मंगल करणा। परिवर्तन पंच विनाशे, पूजनते ज्ञान प्रकाशे ।। ऊँ ह्रीं श्रेयांसनाथजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥52॥
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