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समता मयक्रोध विनाश किया, जग काम रिपू को शान्त किया। शुचिताधर शुचिकर नाथ जजू, श्री कृष्णमती जिन नित्य भनँ।। ऊँ ह्रीं कृष्णमतये जिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।37॥
शुचि ज्ञानमती जिन ज्ञान धरे, अज्ञान तिमिर सब नाश करे। जो पूजें ज्ञान बढ़ावत है, आतम अनुभव सुख पावत हैं।। ऊँ ह्रीं ज्ञानमतये जिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।38।।
शुद्धमती जिनधर्म धुरन्धर, जानत विश्व सकल एकीकर। शुद्ध बुद्ध होवे जो पूजे, ध्यान करे भवि निर्मल हूजे।। ऊँ ह्रीं शुद्धमतये जिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।39।।
संसार विभूति उदास भये, शिवलक्ष्मी सार सुहात भए। निज योग विशाल प्रकाश किया, श्रीभद्र जिनं शिववास लिया।।
ऊँ ह्रीं श्रीभद्रमतये जिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।40॥
सत् वीर्य अनन्त प्रकाश किये, नित आतमतत्त्व विकास किये।
जिन वीर्य अनन्त प्रभाव धरे, जो पूजें कर्म-कलंक हरे।। ऊँ ह्रीं अनन्तवीर्यजिनाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।41।।
(दोहा) भूत भरत चौबीस जिन, गुण सुमरूँ हर बार। मंगल कारी लोक में, सुख-शांति दातार।। ऊँ ह्रीं अस्मिन् प्रतिष्ठामहोत्सवे यागमण्डलेश्वर द्वितीयवलयोन्मुद्रित निर्वाणाद्यनन्तवीर्यान्तेभ्यो
भूतजिनेभ्यो पूर्णा निर्वपामीति स्वाहा।
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