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(भुजंगप्रयात) दरश ज्ञान बैरी करम तीव्र आए, नरक पशुगती माँहि प्राणी पठाए। तिन्हें ज्ञान असिते हनन नाथ कीना, परम सिद्ध उत्तम भनँ रागहीना।।
ऊँ ह्रीं सिद्धलोकोत्तमेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।11॥
(चौपेया) सूरज चन्द्र देवपति नरपति पद सरोज निज वंदे। लोट लोट मस्तक धर पग में पातक सर्व निकंदे।।
लोकमाँहि उत्तम यतियन में जैनसाधु सुखकंदे। पूजत सार आत्मगुण पावत होवत आप स्वच्छंदे।। ऊँ ह्रीं साधुलोकोत्तमेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥12॥
(सृग्विणी) जो दया धर्म विस्तारता विश्व में, नाश मिथ्यात्व अज्ञान कर विश्व में।। काम भव दर कर, मोक्षकर विश्व में, सत्य जिनधर्म यह धार ले विश्व में।। ऊँ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्मलोकोत्तमाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।13॥
(मरहठा) भव-भ्रमण कराया शरण नराया जीव-अजीबहिं खोज। इन्द्रादिक देवा जाको पूजें जाग गुण गावें रोज।।
ऐसे अर्हत् की शरणा आये, रत्नत्रय प्रगटाय। जासे ही जन्म मरण भये नाशे, नित्यानन्दी पाय।। ऊँ ह्रीं अहँत् शरणेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।14।।
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