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(चौपाई) जय जय सिद्ध परम सुखकारी। तुम गुण सुमरत कर्म निवारी।।
विघ्न समूह सहज हरतारे। मंगलमय मंगल करतारे।। ऊँ ह्रीं सिद्धमंगलेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।7।
(शादूलविक्रीडित) राग-द्वेष महान सर्प शमनेशम मंत्रधारी यती। शत्र-मित्र महान भाव करके भवताप हारी यती।। मंगल सार महानकार अघहर सत्वानुकम्पी यती। संयम पूर्ण प्रकार साध तप को संसारहारी यती।। ॐ ह्रीं साधुमंगलाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।8।
(शंका) जिनधर्म है सुखकार जग में धरत भव भयवंत।
स्वर्ग-मोक्ष सुद्वार अनुपम धरे सो जयवन्त।। सम्यक्तव-ज्ञान-चरित्र लक्षण भजत जग में संत।
सर्वज्ञ राग विहीन वक्ता है प्रमाण महन्त।। ऊँ ह्रीं केवलिप्रज्ञप्तधर्ममंगलाय अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥9॥
(झूलना) चर्ण संस्पशते वन गिरि शुद्ध हो, नाम सत्तीर्थ को प्राप्त करते भए। दर्श जिनका करे पूजते दुख हरे, जन्म निज सार्ध भविजीव मानत भए।।
देव तुम लेखके देव सब छोड़के, देव तुम उत्तमा सन्त ठानत भए। पूजते आपको टालते ताप को, मोक्षलक्ष्मी निकट आप जानत भए।।
ऊँ ह्रीं अर्हल्लोकोत्तमेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।10॥
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