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(नाराच) सुखी न जीव हो कभी जहाँ कि देह साथ है। सदा हि कर्म आस्रवें, न शांतता लहात है। जो सिद्ध को लखाय भक्ति एक मन करात है। वही सुसिद्ध आप हो स्वभाव आत्मपात है।।
ऊँ ह्रीं सिद्धशरणेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा।।15।।
(त्रोटक) नहिं राग न द्वेष न काम धरें, भवदधि नौका भवि पार करें। स्वारथ बिन सब हितकारक हैं, ते साधु जजू सुखकारक हैं।।
ऊँ ह्रीं साधुशरणेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥16॥
(चामरो) धर्म ही सु मित्रसार साथ नाहि त्यागता, पाप रूप अग्नि को सुमेघ सम बुझावता। धर्म सत्य शर्ण यही जीव को सम्हारता, भक्ति धर्म जो करें अनन्त ज्ञान पावता।।
ऊँ ह्रीं धर्मशरणेभ्यो अध्यं निर्वपामीति स्वाहा॥17॥
(दोहा) पंच परमगुरु सार हैं, मंगल उत्तम जान। शरणा राखन को बली, पूर्जे कर उर ध्यान।। ऊँ ह्रीं अर्हत्परमेष्ठिप्रभृतिधर्मशरणांत प्रथमवलयस्थितसप्तदश जिनाधीश यागदेवताभ्यो पूर्णायं
निर्वपामीति स्वाहा।
द्वितीय वलय में भूतकाल में 24 तीर्थकरों की पूजा
(पद्धरी) भवि लोक शरण निर्वाणदेव, शिव सुखदाता सब देव देव। पूर्जा शिवकारण मन लगाय, जासे भवसागर पार जाय।। ऊँ ह्रीं निर्वाणजिनाय अयं निर्वपामीति स्वाहा।।18॥
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