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तीन जग भ्रम्यो बिन, रतनत्रय पाय जी । मिली नहिं सेवकी, कहुँ सुखदाय जी ।। अब शुभ दिन भयो, भक्ति इनकी करें। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें || 2 || चक्रि नरराज से, रतनत्रय काज जी । तजे सब जगत सुख, दाय बहुराज जी।। छोड़ि सब परिग्रह, वास वन में करें। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें ॥3॥
बिना रतनत्रयी, तीर्थंकर देव जी । सिद्ध पद ना लहें, करें बहुसेव जी ।। तास तें रतन त्रय, एक शिवफल करे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें॥4॥ भये रतन त्रय पाय, देव गणधर सही। रतनत्रय लाभ तैं, पदविमुनिकीलही।। सकल सुख देय कर, रतनत्रय अघ हरे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें ॥5॥ रतनत्रय तीर्थसम, जगत में सार जी । रतनत्रय देय भव, तार अधिकार जी । रतनत्रय गुरू हम, पाय तप को करें। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें ॥6॥ रतनत्रय धर्म सब, हरे सब कर्म जी । रतनत्रय ज्योति तैं, मिटे बहु भर्म जी।। रतनत्रय रूप लखि, मुकतिनार वर करे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें ।। 7।। रतनत्रय छत्रता, शिर फिरे आय जी। जीव सो जगत तजि, मुक्तिराज पाय जी।। रतनत्रय लक्ष्मि की, चाह हरि सुर करे । मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें ॥8॥
रतन त्रय रविसदृश, रागतम नाशि है। रतन त्रय नेत्र तैं, तत्त्व सुप्रकाश है। रतन त्रय मुकुट शिव, नार बल्लभ करे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें ॥9॥
रतन त्रय राह को, नग्न जावे सही। किन्तु जो परिग्रही, तास निभती नहीं। रतनत्रय देहि भजि, आपसम जो करे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें ॥10॥ रतन त्रय एक जग, मांहि है सार जी | कीजिये कहा कहों, और निरधार जी ।। रतन त्रय नाव भव, अब्धि पारे करे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें॥11॥ विरत यह रतन त्रय, करे धन्य सोय जी। या थकी फेर ना, जन्म मृत्यु होय जी।। विरत यह रतनत्रय, मोक्ष दे हित करे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें॥12॥ करो भवि रतनत्रय, विरत मन लाय जी। समय यह कठिन कर, मिलोशुभ आय जी।
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