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मनुषतन उच्चकुल, याहि सो ही करे। मैं जजों भाव तें, कार्य वाँछित सरें।।13।। विरत की विधी या, आर्ष बतलाय जी। वासत्रय आदि अन्त, एकभुक्ति पाय जी।।
रीति उत्कृष्ट सो, भव्य मन में धरे। मैं जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें।।14।। होय ना शक्ति उत, कृष्ट की तो सुनो। आदि जुग मान इक, पारणा दिन गुनो।। नांहि मध्य शक्ति अंत, आदि अनशन करें। मैं जजों भाव तें, कार्य वाँछित सरें।।15।।
होय अल्पशक्ति तो, वह करें येम जी। मध्य इक वास अन्त, पारना जीम जी।। वास ना शक्ति तो, अल्प भोजन करे। मैं जजों भाव तें, कार्य वाँछित सरें।।16।।
विरत ऐसे करे, वर्ष तेरह सही। तथा वर्ष नौ त्रय, विरतकर ध्वनि कही।। अन्त उद्यापना, या दुगुन व्रत करे। जजों भाव तैं, कार्य वाँछित सरें।।17।
शक्तिसम द्रव्य ले, फेरि जिन पूजिये। दीजिये दान पर, भावना कीजिये।। और घनी विधि जिन, वानि लखि के धरे। मैं जजों भाव तें, कार्य वाँछित सरें।।18।।
विरत ऐसे किये, कर्म अरि को हरे। भव्य व्रत धार यों, भावना मन धरे।। रत्नत्रय विरत की, सेव शिवसुख करे। मैं जजों भाव तें, कार्य वाँछित सरें।।19॥
दोहा रत्नत्रय की सेव कर, रत्नत्रय गुण भाव। रत्नत्रय की भावना, कर पल पल शिव नाव।।
ओं ह्रीं श्री सम्यग्रत्नत्राय महाअध्यम् निर्वपामीति स्वाहा
इति रत्नत्रयविधान समाप्तम्।
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