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जो मुनि भोजन लेय क्रोधयुत, दाता के घर जाई। तो मुनि के शिर दोष चढ़त हैं, सो भोजन दुखदाई।। 'क्रोध' दोष यह तजे मुनीश्वर, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले। ओं ह्रीं क्रोधदोषरहितैषणासमितियुत सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
हम तपसी दीरधकुल धारी, ज्ञान धरे अधिकाई। यों कह भोजन ले दाता घर, मानसहित हो भाई।। 'मानदोष' यह तज के मुनिवर, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले।। ओं ह्रीं मानदोषरहितैषणासमितियुत सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
भोजन को मुनि जाय नगर में, दाता के घर जाई। भोजन लेय कपटकर चित्त में, नाना छल दिखलाई।। 'मायादोष' तजे इसको मुनि, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले।। ओं ह्रीं मायादोषरहितैषणासमितियुत सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
लोभविवश हो दाता के घर, ले भोजन यति जाई। स्वादलम्पटी रसना पोड्यो, तो शिर दोष चढ़ाई।। 'लोभ' दोष को तज के यतिवर, समिति एषणा पाले।
या जुत सम्यक्चारित पूजों, सो मेरे अघ टाले।। ओं ह्रीं लोभदोषरहितैषणासमितियुत सम्यक्चारित्राय अध्यम् निर्वपामीति स्वाहा।
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